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कामदेव की कामना

विवेक की बात
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देवों की भूमि कहलाए जाने वाला भारत, जहाँ “भैरो” के नाम से कुत्ते तक को भी कई तीर्थस्थलोँ में जगह दी गई है। वहां जाने वाले लोग उनकी पूजा भी करतें हैं। वहीँ काम के देवता “कामदेव” अपने आप को बड़े उपेक्षित महसूस करते होंगे। जिस “कामदेव” के बिना सफल और सुखद दाम्पत्य जीवन की कामना भी नहीं की जा सकती। हमारे समाज में दो अजनबियों को शादी के सूत्र में एक साथ बांध दिया जाता है, उन दोनों को करीब लाने और उनके बीच प्रेम पैदा करने का काम “कामदेव” ही करतें हैं। चाहे प्रेम के बीज से काम का पौधा निकलता हो या काम के पेड़ पर प्रेम के फल आते हों। दोनों में से किसी भी हालत में “काम” को कोई क्रेडिट नहीं मिलता, प्रेम ही सारी वाहवाही बटोर लेता है। जिनकी कृपा से आदमी अपने मर्द होने का दम्भ भरता है और औरतें अपने औरत होने पर इतराती हैं। उस कामदेव की उपासना तो दूर उनके बारे में खुलकर बात भी करना लोग पसंद नही करते। जिन पर उनकी  दयादृष्टि बनी रहती  है वो बिना उनको क्रेडिट या धन्यवाद दिए हुए अपने मौज-मस्ती में मगन रहता है और जिन पर उनकी कृपा नहीं  है वो तो शर्म के मारे  किसी को कुछ कह भी नहीं पाता। यही वो एक इकलौते देव हैं जिनसे शिकायत तो बहुत लोगों को होती है पर कोई किसी के सामने जाहिर नहीं करता। इनकी कृपा अगर जरुरत से कम मिले तो शर्मिन्दगी और ज्यादा मिले तो बेचैनी और बदनामी तक का कारण भी बन जाती है।

भूतकाल के भारत में “कामदेव” इतने उपेक्षित नहीं थे । कुछ लोग थे जिन्होंने उनके महत्व को समझा।  किसी ने उनपर पूरी ग्रन्थ लिख डाली तो किसी ने पूरे एक गाँव में कई  मंदिर बनवाकर, हर मंदिर को बाहर और भीतर से “कामदेव” मय बना दिया। ये बात अलग है की एक जगह पे इतने सारे मंदिर होने के बावजूद भी वो  जगह तीर्थस्थल के बजाय आज “खजुराहो” नामक एक पर्यटन स्थल बन कर रह गया।  खैर खजुराहों के बन जाने के बाद इस धरती पर उनका कोई ठिकाना तो बना। वहीँ अपना डेरा जमाये, भारत में दिन प्रतिदिन दिन अपनी उपेक्षा से त्रस्त “कामदेव” को तब से थोड़ी तसल्ली होनी शुरू हुई जब विदेशी सैलानी वहां पहुचने लगे। वहाँ आने वाले विदेशियों में अपना क्रेज देख-देख उनको थोड़ी तसल्ली होती रहती। भाव के भूखे “कामदेव” को विदेशियों से मिलने वाले भाव ने अपने अहमियत का अहसास कराया लेकिन उन्हें भारतीयों से अभी भी तखलीफ़ रहती। अपने विदेशी प्रसंशक का प्रभाव उनपर इतना परा की मौसम आदि के वजह से जब कभी उनका आना कम होता “कामदेव” खुद विदेशों का चक्कर लगा आते। वहां के लोगों को उन्मुक्तता के साथ जीवन जीते देखकर उन्हें बहुत अच्छा लगने लगा और उनको वहाँ के लोगों से लगाव हो गया। ये लगाव इतना बढ़ा की उनका कभी-कभी जाना प्रवास में और प्रवास आवास में बदल गया और वे विदेश में ही रहने लगे। अब वो कभी-कभी भारत आते है। जब भी यहाँ आते हैं अपने साथ कुछ ऐसा ले कर आते हैं जिससे विदेश जैसा माहौल यहाँ भी बन सके। “कामदेव” अपने इस प्रयास में काफी हद तक सफल हो रहे हैं। “वैलेंटाइन डे” और “फ्रेंडशिप डे” अब यहाँ भी एक पर्व की तरह मनाया जाने लगा है। “वैलेंटाइन डे” अब “वैलेंटाइन वीक” बन गया है, इसका असर युवाओं में महीनो तक दिखता है। फरवरी आने का इन्तजार “कामदेव” को भी पूरे साल रहता है। इस पूरे महीने वो यहीं रहते हैं। इनदिनों यहाँ का माहौल देखकर उनको काफी तसल्ली मिलती है। पर उनको तकलीफ अभी भी यही है की उनकी सारी कोशिशों का क्रेडिट प्रेम को मिल जाता है। वो यहाँ से हर बार मायूस मन से लौटते  हैं। देश-देश घूम कर फिर ऐसा कुछ तलाशने लगतें हैं जो उनको अपने ही देश भारत में खुल कर स्वीकृति दिला सके।

इससे पहले की भाव के भूखे “कामदेव” की ये अनवरत कोशिश भारत में उथल-पुथल मचा दे, हमें उनको और उनकी अहमियत दोनों को समझते हुए, और देवी-देवताओं की तरह उनके प्रति भी अपने दिल में श्रद्धा-भक्ति जगानी पड़ेगी।

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